भेड़-बकरियों में होने वाले विषाणुजनित रोग, जानिये – कारण, लक्षण व रोकथाम के उपाय

भेड़-बकरियों में विषाणुजनित रोग

विषाणु का शाब्दिक अर्थ विषाक्त अणु (toxic molecules) या कण होता है। विषाणु यानी वायरस बेहद छोटे संक्रामक जीव होते है जो केवल जीवित कोशिका (living cell) में ही पनपते और प्रजनन कर सकते हैं। ये कई तरीकों से हमले करते हैं, जैसे – साँस के द्वारा, शारीरिक संपर्क द्वारा, मौखिक रूप से या फिर काटने वाले कीट-पतंगों के जरिए ।

जीवाणु बनाम विषाणु ?

आखिर विषाणु (Virus) और जीवाणु (Bacteria) में फर्क क्या है ? जीवाणु एकल-कोशीय सूक्ष्म जीव (single-celled microorganism) हैं जो प्रोकैरियोट्स (prokaryotic) की श्रेणी में आते हैं। ये स्वतंत्र रूप से जीवनयापन कर सकते हैं । जबकि विषाणु, ज्यादा छोटे जीव हैं जो केवल जीवित कोशिकाओं के भीतर ही प्रजनन (reproduction) कर सकते हैं। खैर, भेड़-बकरियों में होने वाले विषाणुजन्य रोग (viral diseases of sheep and goats) के बार में आइये इस Blog में जानते हैं ।  

  1. बकरी प्लेग (PPR)

रोग का कारण Paramyxoviridae कुल के ‘morbilli virus ‘ वंश का विषाणु है।  चूंकि यह तेजी से फैलने वाला रोग है, इसलिए तुरन्त जांच जरूरी है। भेड़ों की अपेक्षा बकरियों में इस रोग की गंभीरता अधिक है । 4 महीने से 1 साल तक के मेमनों (lambs) को ज्यादा खतरा होता है । यह रोग, रोगी पशु के सीधे संपर्क में आने (direct contact with a sick animal) से होता है। दूषित आहार व पानी से भी हो सकता है।

लक्षणों में तेज बुखार, होठों-मसूढ़ों- गाल की भीतरी सतह व जीभ पर श्लेष्मिक स्खलन (mucous ejaculation) प्रकृति के घाव होना शामिल है । ये घाव मसूड़े और दाँत के मिलान के स्थान पर होते हैं। साथ में आंख-नाक से पानी आना, खांसी और निमोनिया के लक्षण भी देखे जाते है। आखिरी स्टेज में खून मिले पतले दस्त होते हैं और पशु की मृत्यु तक हो जाती है।

रोग की रोकथाम के लिए टीका (vaccine) कारगर है जो 4 महीने की उम्र में लगाया जाता है और 3 साल तक सुरक्षा प्रदान करता है। ध्यान रहे, रोग की गंभीर अवस्था में उपचार प्रभावी नहीं हो पाता।

  1. चेचक (Pox)

Sheeppox virus (SPPV) और Goatpox virus (GTPV) रोगी पशु के सीधे सम्पर्क या बाड़े में पाई जाने वाली एक विशेष मक्खी के काटने के कारण से होता है। ये ज्यादातर भेड़ों को होता है ।

रोग के लक्षणों में शुरूआती बुखार आना, कम ऊन/बाल वाले हिस्सों जैसे- सिर, गर्दन, कान, जांघों एवं पूंछ के नीचे की चमड़ी पर लाल चकत्ते पड़ना जो कि बाद में गाठों में बदल जाते हैं और गलने पर सख्त पपड़ी के रूप में दिखाई देते है । चमड़ी के साथ-साथ यह रोग शरीर के भीतरी अंगों जैसे फेफड़ों में गाठों के रूप में भी फैलता है जिस कारण पशु को सांस लेने में कठिनाई होती है ।

रोकथाम के लिए टीका उपलब्ध है जो कि 3 माह की आयु में लगाया जाता है । इसके बाद हर साल टीके की सलाह दी जाती है। रोग हो जाने की स्थिति में साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें।

  1. मुँहा रोग (Contagious ecthyma)

ये एक अति-संक्रमण रोग है जो कि पैरापॉक्स समूह के विषाणु (parapox virus) के कारण होता है। ये भी मेमनों में अधिक होता है। स्वस्थ पशु में यह रोग रोगी पशु के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क में आने के कारण होता है।

लक्षण हैं – पशु में शुरूआती बुखार के बाद थूथन एवं होठों पर फफोलेदार घाव होते हैं जिस पर बाद में पपड़ी जम जाती है । मेमनों में यह घाव चेहरे, कान, पैर, जांघ या अंडकोष (testicles) की थैली की चमड़ी पर भी हो सकते है। 3-4 हफ्ते में घाव ठीक होने लगते हैं।

इसकी रोकथाम के लिए पशु बाड़े (animal enclosure) में साफ सफाई का विशेष ध्यान रखें। प्रभावित पशु को तुरन्त स्वस्थ पशुओं से अलग करें और इलाज करवाएं।

  1. नील जिव्हा (blue tongue)

कारण- यह भेड़ों में पाया जाता जाने वाला अछूत का रोग है जो कि Orbi नामक समूह के विषाणु के कारण होता है। यह रोग मुख्यतः काटने वाले मक्खी- मच्छरों के कारण होता है। छोटी आयु के पशुओं में लक्षण अधिक तीव्र होते हैं।

रोग के प्रारंभिक लक्षणों में तेज बुखार, अधिक लार,  मुँह एवं नाक की श्लेष्मिक झिल्ली में लालिमा आदि लक्षण दिखाई पड़ते हैं। बाद में लार व नासिक स्त्राव (nasal discharge) रक्तरंजित हो सकता है। होंठ, मसूडे़, जीभ में सूजन आ सकती है जिससे कि जीभ मुँह से बाहर निकल आती है एवं अतितीव्रता की अवस्था में जीभ नीली पड़ जाती है।

रोकथाम के लिए पशु बाड़े में मक्खी-मच्छरों से बचाव के लिए कीटनाशक का प्रयोग करें। रोग की रोकथाम के लिए टीका 3 माह की आयु में लगावाया जाता है, इसके बाद हर साल लगवाएं।

  1. मुंह-खुर रोग (FMD) :

कारण– पशुओं में यह रोग Aphthovirus समूह के विषाणु के कारण होता है। प्राकृतिक रूप से यह रोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी एवं सूअरों को प्रभावित करता है । हालांकि भेड़-बकरियों में इस रोग की तीव्रता अधिक नहीं है। Foot-and-mouth disease अक्सर रोगी पशु के सीधे सम्पर्क या श्वांस मार्ग द्वारा विषाणु के प्रवेश करने से होता है।

लक्षण आम तौर पर नजर नहीं आते लेकिन पशुओं में लंगड़ापन आना पहला लक्षण हो सकता है । पशु के चारों पैर में फफोले जैसे घाव हो सकते हैं।

रोकथाम के लिए 4 महीने की आयु में टीका लगाया जाता है। इसके बाद साल में दो बार लगवाने की सलाह दी जाती है। रोग की स्थिति में बाड़े की सफाई जरूरी है ।

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